फ़क़ीराना तबीअत थी बहुत बेबाक लहजा था

फ़क़ीराना तबीअत थी बहुत बेबाक लहजा था
कभी मुझ में भी हँसता खेलता एक शख़्स रहता था,

बगूले ही बगूले हैं मेंरी वीरान आँखों में
कभी इन रहगुज़ारों में कोई दरिया भी बहता था,

तुझे जब देखता हूँ तो ख़ुद अपनी याद आती है
मेंरा अंदाज़ हँसने का कभी तेरे ही जैसा था,

कभी परवाज़ पर मेरी हज़ारों दिल धड़कते थे
दुआ करता था कोई तो कोई ख़ुश बाश कहता था,

कभी ऐसे ही छाई थीं गुलाबी बदलियाँ मुझ पर
कभी फूलों की सोहबत से मेंरा दामन भी महका था,

मैं था जब कारवाँ के साथ तो गुलज़ार थी दुनिया
मगर तन्हा हुआ तो हर तरफ़ सहरा ही सहरा था,

बस इतना याद है सोया था एक उम्मीद सी ले कर
लहू से भर गईं आँखें न जाने ख़्वाब कैसा था..!!

~मनीश शुक्ला


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