आँख में दहशत न थी हाथ में ख़ंजर न था

आँख में दहशत न थी हाथ में ख़ंजर न था
सामने दुश्मन था पर दिल में कोई डर न था,

उस से भी मिल कर हमें मरने की हसरत रही
उस ने भी जाने दिया वो भी सितमगर न था,

एक पहाड़ी पे मैं बैठा रहा देर तक
शौक़ से देखा करूँ ऐसा भी मंज़र न था,

हम से जो आगे गए कितने मेहरबान थे
दूर तलक राह में एक भी पत्थर न था,

रात बहुत देर से आँख लगती थी ज़रा
नींद में कमरा न था ख़्वाब में बिस्तर न था,

शेर तो हम ने बहुत ठीक किया था मगर
अब भी ग़लत था कहीं अब भी बराबर न था,

सोचा था इस बार तो जा के ज़फ़र से मिलें
क्या करें अल्वी मगर ऐसा मुक़द्दर न था..!!

~मोहम्मद अल्वी

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