रंग ओ बू के जहाँ के थे ही नहीं

रंग ओ बू के जहाँ के थे ही नहीं
इस ज़मीं आसमाँ के थे ही नहीं,

राह ओ मंज़िल अलग रहे अपने
हम किसी कारवाँ के थे ही नहीं,

बर्क़ को भी रहा यही अफ़्सोस
हम किसी आशियाँ के थे ही नहीं,

हमने समझा था उनको क्यों अपना
वो जो मेहमाँ यहाँ के थे ही नहीं,

मंज़िलें आसमाँ से आगे थीं
हम ज़माँ ओ मकाँ के थे ही नहीं,

रंग ओ बू इख़्तियार क्यों करते ?
फूल इस गुल्सिताँ के थे ही नहीं,

हो गए राएगाँ सभी सज्दे
वो जो इस आस्ताँ के थे ही नहीं..!!

~राम चंद्र वर्मा साहिल

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