पत्थर के ख़ुदा पत्थर के सनम पत्थर के ही इंसाँ पाए हैं

पत्थर के ख़ुदा पत्थर के सनम पत्थर के ही इंसाँ पाए हैं
तुम शहर ए मोहब्बत कहते हो हम जान बचा कर आए हैं,

बुतख़ाना समझते हो जिसको पूछो न वहाँ क्या हालत है
हम लोग वहीं से लौटे हैं बस शुक्र करो लौट आए हैं,

हम सोच रहे हैं मुद्दत से अब उम्र गुज़ारें भी तो कहाँ ?
सहरा में ख़ुशी के फूल नहीं शहरों में ग़मों के साए हैं,

होंटों पे तबस्सुम हल्का सा आँखों में नमी सी है फ़ाकिर
हम अहल ए मोहब्बत पर अक्सर ऐसे भी ज़माने आए हैं..!!

~सुदर्शन फ़ाकिर

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