तेग़ ए जफ़ा को तेरी नहीं इम्तिहाँ से रब्त
मेरी सुबुकसरी को है बार ए गराँ से रब्त,
दुनिया को हम से काम न दुनिया से हम को काम
ख़ातिर से तेरी रखते हैं सारे जहाँ से रब्त,
उड़ते ही गर्द जाती है जो सू ए आसमाँ
है कुछ न कुछ ज़मीन को भी आसमाँ से रब्त,
इज़हार ए हाल के लिए सूरत सवाल है
है गुफ़्तुगू से काम न हम को ज़बाँ से रब्त,
चश्मे की तरह रहती हैं जारी मुदाम ये
आँखों को हो गया है जो आब ए रवाँ से रब्त,
बे रब्तियों ने क़द्र मिटाई जो रब्त की
है गोश्त को भी अपने न अब उस्तुख़्वाँ से रब्त..!!
~क़द्र ओरैज़ी