किसी भी शय पे आ जाने में कितनी देर लगती है
मगर फिर दिल को समझाने में कितनी देर लगती है,
ज़रा सा वक़्त लगता है कहीं से उठ के जाने में
मगर फिर लौट कर आने में कितनी देर लगती है,
बला का रूप ये तेवर सरापा धार हीरे की
किसी के जान से जाने में कितनी देर लगती है,
फ़क़त आँखों की जुम्बिश से बयाँ होता है अफ़्साना
किसी को हाल बतलाने में कितनी देर लगती है,
सभी से ऊब कर यूँ तो चले आए हो ख़ल्वत में
मगर ख़ुद से भी उकताने में कितनी देर लगती है,
शुऊर ए मयकदा इस की इजाज़त ही नहीं देता
वगर्ना जाम छलकाने में कितनी देर लगती है,
ये शीशे का बदन ले कर निकल तो आए हो लेकिन
किसी पत्थर से टकराने में कितनी देर लगती है..!!
~मनीश शुक्ला

























