जब आफ़्ताब न निकला तो रौशनी के लिए
जला के हम ने परिंदे फ़ज़ा में छोड़ दिए,
तमाम उम्र रहीं ज़ेर ए लब मुलाक़ातें
न उस ने बात बढ़ाई न हम ने होंट सिए,
सुपुर्दगी का वो लम्हा कभी नहीं गुज़रा
हज़ार बार मरे हम हज़ार बार जिए,
हज़ार बार वो आया भी और चला भी गया
एक उम्र बीत गई उस का एतिबार किए,
ख़बर नहीं कि ख़ला किस जगह पे हो मौजूद
ज़मीन पर भी क़दम फूँक फूँक कर रखिए,
सफ़र भी दूर का है और कहीं नहीं जाना
अब इब्तिदा इसे कहिए कि इंतिहा कहिए,
हवा उठा न सकी बोझ अब्र का शहज़ाद
ज़मीं के अश्क भी आख़िर समुंदरों ने पिए..!!
~शहज़ाद अहमद

























