हम सादा ही ऐसे थे की यूँ ही पज़ीराई
जिस बार ख़िज़ाँ आई समझे कि बहार आई,
आशोब ए नज़र से की हम ने चमन आराई
जो शय भी नज़र आई गुल रंग नज़र आई,
उम्मीद ए तलत्तुफ़ में रंजीदा रहे दोनों
तू और तिरी महफ़िल मैं और मिरी तंहाई,
यक जान न हो सकिए अंजान न बन सकिए
यूँ टूट गई दिल में शमशीर ए शनासाई,
उस तन की तरफ़ देखो जो क़त्ल गह ए दिल है
क्या रखा है मक़्तल में ऐ चश्म ए तमाशाई..!!
~फ़ैज़ अहमद फ़ैज़