दिल किस के तसव्वुर में जाने रातों को परेशाँ होता है
ये हुस्न ए तलब की बात नहीं होता है मेरी जाँ होता है,
हम तेरी सिखाई मंतिक़ से अपने को तो समझा लेते हैं
एक ख़ार खटकता रहता है सीने में जो पिन्हाँ होता है,
फिर उनकी गली में पहुँचेगा फिर सहव का सज्दा कर लेगा
इस दिल पे भरोसा कौन करे हर रोज़ मुसलमाँ होता है,
वो दर्द कि उसने छीन लिया वो दर्द कि उसकी बख़्शिश था
तन्हाई की रातों में इंशा अब भी मिरा मेहमाँ होता है..!!
~इब्न ए इंशा

























