दिल के हर दर्द ने अशआर में ढलना चाहा

दिल के हर दर्द ने अशआर में ढलना चाहा
अपना पैराहन ए बे रंग बदलना चाहा,

कोई अनजानी सी ताक़त थी जो आड़े आई
वर्ना हम ने तो बहर गाम सँभलना चाहा,

चाहते तो किसी पत्थर की तरह जी लेते
हम ने ख़ुद मोम की मानिंद पिघलना चाहा,

आँखें जलने लगीं तपते हुए बाज़ारों में
दिल ने जब भी किसी मंज़र पे मचलना चाहा,

सिर्फ़ हम ही नहीं हर एक ने जीने के लिए
एक न एक झूठे सहारे से बहलना चाहा,

कौन है ये जो सिसकता है मेरे सीने में
कौन है जिस ने मेरे ख़ून पे पलना चाहा..!!

~बशर नवाज़


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