आग पानी से डरता हुआ मैं ही था
चाँद की सैर करता हुआ मैं ही था,
सर उठाए खड़ा था पहाड़ों पे मैं
पत्ती पत्ती बिखरता हुआ मैं ही था,
मैं ही था उस तरफ़ ज़ख़्म खाया हुआ
इस तरफ़ वार करता हुआ मैं ही था,
जाग उठा था सुब्ह मौत की नींद से
रात आई तो मरता हुआ मैं ही था,
मैं ही था मंज़िलों पे पड़ा हाँफता
रास्तों में ठहरता हुआ मैं ही था,
मुझ से पूछे कोई डूबने का मज़ा
पानियों में उतरता हुआ मैं ही था,
मैं ही था अल्वी कमरे में सोया हुआ
और गली से गुज़रता हुआ मैं ही था..!!
~मोहम्मद अल्वी