आरज़ू ले के कोई घर से निकलते क्यूँ हो

आरज़ू ले के कोई घर से निकलते क्यूँ हो
पाँव जुलते हैं तो फिर आग पे चलते क्यूँ हो ?

शोहरतें सब के मुक़द्दर में कहाँ होती हैं
तुम ये हर रोज़ नया भेस बदलते क्यूँ हो ?

यूँ तो तुम और भी मश्कूक नज़र आओगे
बात करते हुए रुक रुक के सँभले क्यूँ हो ?

हाँ! तुम्हें जुर्म का एहसास सताता होगा
वर्ना यूँ रातों को उठ उठ के टहलते क्यूँ हो ?

और बाज़ार से ग़ालिब की तरह ले आओ
दिल अगर टूट गया है तो मचलते क्यूँ हो ?

तुम ने पहले कभी इस बात को सोचा होता
पेड़ की छाँव में बैठे हो तो जलते क्यूँ हो..??

~वाली आसी

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