दरवाज़े के अंदर एक दरवाज़ा और
छुपा हुआ है मुझ में जाने क्या क्या और ?
कोई अंत नहीं मन के सूनेपन का
सन्नाटे के पार है एक सन्नाटा और,
कभी तो लगता है जितना है काफ़ी है
और कभी लगता है और ज़रा सा और,
सच कहने पर ख़ुश होना तो दूर रहा
किया ज़माने ने मुझ को शर्मिंदा और,
अजब मुसाफ़िर हूँ मैं मेरा सफ़र अजीब
मेरी मंज़िल और है मेरा रस्ता और,
औरों जैसे और न जाने कितने हैं
कोई कहाँ है लेकिन मेरे जैसा और..!!
~राजेश रेड्डी