दिन को दिन रात को मैं रात न लिखने पाऊँ

दिन को दिन रात को मैं रात न लिखने पाऊँ
उनकी कोशिश है कि हालात न लिखने पाऊँ,

हिन्दू को हिन्दू मुसलमान को लिखूँ मुस्लिम
कभी इन दोनों को एक साथ न लिखने पाऊँ,

बस क़लम बंद किए जाऊँ मैं उनकी हर बात
दिल से जो उठती है वो बात न लिखने पाऊँ,

सोच तो लेता हूँ क्या लिखना है पर लिखते समय
काँपते क्यूँ है मेरे हाथ न लिखने पाऊँ ?

जीत पर उन की लगा दूँ मैं क़सीदों की झड़ी
मात को उनकी मगर मात न लिखने पाऊँ,

शुक्र ही शुक्र लिखे जाऊँ मैं उनके हक़ में
कभी उन से मैं शिकायात न लिखने पाऊँ,

अपने होंठों पे न ला पाऊँ मैं अपने नाले
अपनी ही आँखों की बरसात न लिखने पाऊँ,

जिन सवालों से तबस्सुम में ख़लल पड़ता हो
कभी वो तल्ख़ सवालात न लिखने पाऊँ,

ख़ुद को माज़ी में रखूँ हाल में रहते हुए भी
नए वक़्तों के ख़यालात न लिखने पाऊँ,

उनकी कोशिश है कलेजा हो मेरा पत्थर का
उनकी कोशिश है मैं जज़्बात न लिखने पाऊँ..!!

~राजेश रेड्डी

संबंधित अश'आर | गज़लें

Leave a Reply