लिपट के सोच से नींदें हराम करती है
तमाम शब तेरी हसरत कलाम करती है,
हमी वो इल्म के रौशन चराग़ हैं जिन को
हवा बुझाती नहीं है सलाम करती है,
किसी भी तौर सिखाती नहीं है आज़ादी
मेरे हुज़ूर मोहब्बत ग़ुलाम करती है,
ये सर ब सज्दा कहा नेक दिल तवाइफ़ ने
ख़ुदाया शुक्र कि बेटी भी काम करती है,
फ़ना की झील में जिस तरह वक़्त रहता है
कुछ इस तरह से वो मुझ में क़ियाम करती है,
चराग़ ए मुफ़्लिस ओ बेबस का हाल हो जैसे
हमारे साथ कुछ ऐसा ही शाम करती है,
हवा ओ हिर्स की लानत का क्या करें ख़ालिद
तेरी तलब को सलीक़े से राम करती है..!!
~ख़ालिद नदीम शानी

























