तू क़रीब आए तो क़ुर्बत का यूँ इज़हार करूँ
आइना सामने रख कर तेरा दीदार करूँ,
सामने तेरे करूँ हार का अपनी एलान
और अकेले में तेरी जीत से इंकार करूँ,
पहले सोचूँ उसे फिर उस की बनाऊँ तस्वीर
और फिर उस में ही पैदा दर ओ दीवार करूँ,
मेरे क़ब्ज़े में न मिट्टी है न बादल न हवा
फिर भी चाहत है कि हर शाख़ समर बार करूँ,
सुब्ह होते ही उभर आती है सालिम हो कर
वही दीवार जिसे रोज़ मैं मिस्मार करूँ..!!
~निदा फ़ाज़ली

























