ज़रीदे में छपी है एक ग़ज़ल दीवान जैसा है…

ज़रीदे में छपी है एक ग़ज़ल दीवान जैसा है
ग़ज़ल का फ़न अभी भी रेत के मैदान जैसा है,

मिला मैं उससे हाँ साया मेरा बढ़ता रहा आगे
सफ़र में हमसफ़र भी आजतक हैरान जैसा है,

नहीं दिखते उछलते, खेलते, हंसते हुए बच्चे
मोहल्ला इस नई तहज़ीब में शमशान जैसा है,

नज़र को देखकर ये दाद भी अच्छी नहीं लगती
मुकर्रर लफ़्ज़ तेरे होंठ पे एक दान जैसा है,

नई बस्ती, नये मौसम मगर हूँ कौल का पक्का
यहां पे गुफ़्तगू करना मुझे अपमान जैसा है,

फिसल जाता है पल भर में चमक को देखकर पीली
तेरा ईमान भी लगता है बेईमान जैसा है..!!

~महेंद्र अग्रवाल

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