ज़ख़्मों ने मुझ में दरवाज़े खोले हैं
मैंने वक़्त से पहले टाँके खोले हैं,
बाहर आने की भी सकत नहीं हम में
तूने किस मौसम में पिंजरे खोले हैं,
बरसों से आवाज़ें जमती जाती थीं
ख़ामोशी ने कान के पर्दे खोले हैं,
कौन हमारी प्यास पे डाका डाल गया
किस ने मश्कीज़ों के तस्मे खोले हैं,
वर्ना धूप का पर्बत किस से कटता था
उसने छतरी खोल के रस्ते खोले हैं,
ये मेरा पहला रमज़ान था उसके बग़ैर
मत पूछो किस मुँह से रोज़े खोले हैं,
यूँ तो मुझ को कितने ख़त मौसूल हुए
एक दो ऐसे थे जो दिल से खोले हैं,
मन्नत मानने वालों को मालूम नहीं
किस ने आ कर पेड़ से धागे खोले हैं,
दरिया बंद किया है कूज़े में तहज़ीब
एक चाबी से सारे ताले खोले हैं..!!
~तहज़ीब हाफ़ी

























