ये नहर ए आब भी उस की है मुल्क ए शाम उस का

ये नहर ए आब भी उस की है मुल्क ए शाम उस का
जो हश्र मुझ पे बपा है वो एहतिमाम उस का,

सिपाह ए ताज़ा भी उस की सफ़ ए निगाह से है
सफ़ा ए सीन ए शमशीर पर है नाम उस का,

अमान ख़ेमा ए रम ख़ुर्दगाँ में बाक़ी है
कि ना तमाम है एक शौक़ ए क़त्ल ए आम उस का,

किताब ए उम्र से सब हर्फ़ उड़ गए मेरे
कि मुझ असीर को होना है हम कलाम उस का,

दिल ए शिकस्ता को लाना है रू ब रू उस के
जो मुझ से नर्म हुआ कोई बंद दाम उस का,

मैं उस के हाथ से किस ज़ख़्म में कमी रखूँ
शुरू ए नाज़ भी उस का है इख़्तिताम उस का..!!

~अफ़ज़ाल अहमद सय्यद


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