वही बेबाकी ए उश्शाक़ है दरकार अब भी
है वही सिलसिला ए आतिश ओ गुलज़ार अब भी,
अब भी मौजूद है वो बैअत ए फ़ासिक़ का सवाल
और मतलूब है वो जुरअत ए इंकार अब भी,
हैं कहाँ इश्क़ में घर बार लुटाने वाले
ख़ू ए ईसार से मग़लूब हैं अंसार अब भी,
कोई यूसुफ़ तो ज़माना करे पैदा अजमल
नज़र आ सकती है वो गर्मी ए बाज़ार अब भी..!!
~अजमल सिराज
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