ताज़ा मोहब्बतों का नशा जिस्म ओ जाँ में है
फिर मौसम ए बहार मिरे गुल्सिताँ में है,
इक ख़्वाब है कि बार ए दिगर देखते हैं हम
इक आशना सी रौशनी सारे मकाँ में है,
ताबिश में अपनी महर ओ मह ओ नज्म से सिवा
जुगनू सी ये ज़मीं जो कफ़ ए आसमाँ में है,
इक शाख़ ए यासमीन थी कल तक ख़िज़ाँ असर
और आज सारा बाग़ उसी की अमाँ में है,
ख़ुशबू को तर्क कर के न लाए चमन में रंग
इतनी तो सूझ बूझ मिरे बाग़बाँ में है,
लश्कर की आँख माल ए ग़नीमत पे है लगी
सालार ए फ़ौज और किसी इम्तिहाँ में है,
हर जाँ निसार याद दहानी में मुंहमिक
नेकी का हर हिसाब दिल ए दोस्ताँ में है,
हैरत से देखता है समुंदर मिरी तरफ़
कश्ती में कोई बात है या बादबाँ में है..!!
~परवीन शाकिर