न किसी पे ज़ख़्म अयाँ कोई न किसी को फ़िक्र रफ़ू की है
न करम है हम पे हबीब का न निगाह हम पे अदू की है,
साफ़ ए ज़ाहिदाँ है तो बेयक़ीं सफ़ ए मै कशाँ है तो बेतलब
न वो सुब्ह विर्द ओ वुज़ू की है न वो शाम जाम ओ सुबू की है,
न ये ग़म नया न सितम नया कि तिरी जफ़ा का गिला करें
ये नज़र थी पहले भी मुज़्तरिब ये कसक तो दिल में कभू की है,
कफ़ ए बाग़बाँ पे बहार ए गुल का है क़र्ज़ पहले से बेशतर
कि हर एक फूल के पैरहन में नुमूद मेरे लहू की है,
नहीं ख़ौफ़ ए रोज़ ए सियह हमें कि है फ़ैज़ ज़र्फ़ ए निगाह में
अभी गोशागीर वो एक किरन जो लगन उस आईना रू की है..!!
~फ़ैज़ अहमद फ़ैज़