मुझे सहल हो गईं मंज़िलें वो हवा के रुख़ भी बदल गए

मुझे सहल हो गईं मंज़िलें वो हवा के रुख़ भी बदल गए
तेरा हाथ हाथ में आ गया कि चराग़ राह में जल गए,

वो लजाए मेरे सवाल पर कि उठा सके न झुका के सर
उड़ी ज़ुल्फ़ चेहरे पे इस तरह कि शबों के राज़ मचल गए,

वही बात जो वो न कह सके मेंरे शेर ओ नग़्मा में आ गई
वही लब न मैं जिन्हें छू सका क़दह ए शराब में ढल गए,

वही आस्ताँ है वही जबीं वही अश्क है वही आस्तीं
दिल ए ज़ार तू भी बदल कहीं कि जहाँ के तौर बदल गए,

तुझे चश्म ए मस्त पता भी है कि शबाब गर्मी ए बज़्म है
तुझे चश्म ए मस्त ख़बर भी है कि सब आबगीने पिघल गए,

मेंरे काम आ गईं आख़िरश यही काविशें यही गर्दिशें
बढ़ीं इस क़दर मेंरी मंज़िलें कि क़दम के ख़ार निकल गए..!!

~मजरूह सुल्तानपुरी

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