मुझ से कहा जिब्रील ए जुनूँ ने ये भी वहइ ए इलाही है
मज़हब तो बस मज़हब ए दिल है बाक़ी सब गुमराही है,
वो जो हुए फ़िरदौस बदर तक़्सीर थी वो आदम की मगर
मेरा अज़ाब ए दर बदरी मेरी ना कर्दा गुनाही है,
संग तो कोई बढ़ के उठाओ शाख़ ए समर कुछ दूर नहीं
जिस को बुलंदी समझे हो उन हाथों की कोताही है,
फिर कोई मंज़र फिर वही गर्दिश क्या कीजे ऐ कू ए निगार
मेरे लिए ज़ंजीर ए गुलू मेरी आवारा निगाही है,
बहर ए ख़ुदा ख़ामोश रहो बस देखते जाओ अहल ए नज़र
क्या लग़ज़ीदा क़दम हैं उस के क्या दुज़दीदा निगाही है,
दीद के क़ाबिल है तो सही मजरूह तेरी मस्ताना रवी
गर्द ए हवा है रख़्त ए सफ़र रस्ते का शजर हमराही है..!!
~मजरूह सुल्तानपुरी