मसअला ख़त्म हुआ चाहता है
दिल बस अब ज़ख़्म नया चाहता है,
कब तलक लोग अंधेरे में रहें
अब ये माहौल दीया चाहता है,
मसअला मेरे तहफ़्फ़ुज़ का नहीं
शहर का शहर ख़ुदा चाहता है,
मेरी तन्हाइयाँ लब माँगती हैं
मेरा दरवाज़ा सदा चाहता है,
घर को जाते हुए शर्म आती है
रात का एक बजा चाहता है..!!
~शकील जमाली

























