मसअला हुस्न ए तख़य्युल का है न इल्हाम का है
ये फ़साना ज़रा मुश्किल दिल ए नाकाम का है,
रात दिन पहरों पहर उस की अदा के चर्चे
ये तमाशा भी मेरे वास्ते किस काम का है ?
मुस्कुराने लगे हर सम्त मोहब्बत के चराग़
तेरे चेहरे का तसव्वुर भी बड़े काम का है,
सूनी सूनी थीं जो आँखें वो दोबारा हँस दें
नज़र आया है जो मंज़र वो उसी शाम का है,
इस तअल्लुक़ का कोई रंग न ढलने पाया
तज़्किरा शेरों में अब भी उसी गुलफ़ाम का है,
ले उड़ीं ज़र्द हवाएँ मेरे घर से ख़ुशबू
बाम ओ दर क्या हैं दरीचा मेरे किस काम का है ?
फ़स्ल हो जाए तो बढ़ती है ख़ुशी से दूरी
आप का क़ुर्ब ये सच है बड़े आराम का है..!!
~सलमा शाहीन