लगे थे ग़म तुझे किस उम्र में ज़माने के
वही तो दिन थे तेरे खेलने के खाने के,
न जाने ख़ंदा लबी ज़हर ए ख़ंद कैसे हुई
वही है तू वही अंदाज़ दिल दुखाने के,
चराग़ जलता हुआ दूर ही से देख लिया
रहे न हम तेरी महफ़िल में आने जाने के,
फ़लक के पास मोहब्बत की एक किरन भी नहीं
ज़मीन कहती है मुँह खोल दे ख़ज़ाने के,
है शहर शहर वही जंगलों की वीरानी
मिले हैं मुझ को शब ओ रोज़ किस ज़माने के,
ये क़ाफ़िले ये चमकती हुई गुज़रगाहें
हैं एहतिमाम बहुत दूर तक न जाने के,
तलाश ए रिज़्क़ में हम ने चमन तो छोड़ दिया
मगर दिलों में हैं तिनके भी आशियाने के..!!
~शहज़ाद अहमद

























