क्यों न अपनी दास्ताँ बे रब्त अफ़्साना रहे

क्यों न अपनी दास्ताँ बे रब्त अफ़्साना रहे
तुम से हम मानूस हो कर ख़ुद से बेगाना रहे,

सब्र की हद हो गई साक़ी इधर भी एक निगाह
आख़िरश कब तक यूँही हाथों में पैमाना रहे,

मैं तो अपनी रौ में कह गुज़रा हूँ दिल की दास्ताँ
देखिए अब याद किस को मेरा अफ़्साना रहे,

तौबा तौबा ये निगाह ए मस्त ये काफ़िर शबाब
जो तुझे देखे वो सारी उम्र दीवाना रहे,

वो मुझे देखा करें और मैं उन्हें देखा करूँ
लुत्फ़ इसी में है कि यूँ ही दौर ए पैमाना रहे,

हुस्न के साथ आ ही जाती है मोहब्बत को भी नींद
शम्अ सो जाए तो क्यों बेदार परवाना रहे,

किस ने दीवाना बनाया इस को क्या जाने वो शौक़
हाए वो ग़ाफ़िल जो ख़ुद अपने से बेगाना रहे..!!

~विशनू कुमार शौक

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