कोई चेहरा न हुआ रोशन न उजागर आँखें…

कोई चेहरा न हुआ रोशन न उजागर आँखें
आइना देख रही थीं मेरी पत्थर आँखें,

ले उड़ी वक्त की आँधी जिन्हें अपने हमराह
आज फिर ढूँढ रही हैं वही मंज़र आँखें,

फूट निकली तो कई शहर ए तमन्ना डूबे
एक कतरे को तरसती हुयी बंज़र आँखें,

उसको देखा है तो अब शक का वो आलम है
अपने हलकों से निकल आयीं हैं बाहर आँखें,

तू निगाहों की जुबां खूब समझता होगा
तेरी जानिब तो उठा करती हैं अक्सर आँखें,

लोग मरते न दर ओ बाम से टकरा के कभी
देख लेते जो “कमाल” उसकी समंदर आँखें..!!

~अहमद कमाल ‘परवाज़ी


Discover more from Hindi Gazals :: हिंदी ग़ज़लें

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

संबंधित अश'आर | गज़लें

Leave a Reply