ख़ामोश इस तरह से न जल कर धुआँ उठा

ख़ामोश इस तरह से न जल कर धुआँ उठा
ऐ शम्अ कुछ तो बोल कभी तो ज़बाँ उठा,

बुत बन के चुपके फ़ित्ने न यूँ मेरी जाँ उठा
मुँह में अगर ज़बाँ है तो लुत्फ़ ए ज़बाँ उठा,

है कोसों दूर मंज़िल ए अंजाम ए गुफ़्तुगू
तेज़ी के साथ अपने क़दम ऐ ज़बाँ उठा,

डर है यही कि कश्ती ए मज़मूँ न डूब जाए
रह रह के इतनी मौजें न बहर ए ज़बाँ उठा,

अब दौर में है रिंदों के पैमाना ए कलाम
फिर आ गई बहार फिर अब्र ए ज़बाँ उठा,

कर इस क़दर न ज़ौक़ ए तकल्लुम को शर्मसार
अपना सर ए नियाज़ कभी तो ज़बाँ उठा,

कहता है क़द्र देख के तेरे सुकूत को
कुछ फ़ाएदा कलाम से भी ऐ ज़बाँ उठा..!!

~क़द्र ओरैज़ी

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