ख़बर नहीं कि सफ़र है कि है क़याम अभी
तिलिस्म ए शहर में खोए हैं ख़ास ओ आम अभी,
सदा भी देगा कभी तो सुकूत का सहरा
किसी को होने तो दो ख़ुद से हम कलाम अभी,
जो देखिए तो ज़माना है तेज़ रौ कितना
तुलू ए सुब्ह अभी है तो वक़्त ए शाम अभी,
वो क़हत ए आब है दरिया भी सारे ख़ुश्क हुए
रवाँ जो अब्र है करता नहीं क़याम अभी,
अब इत्तिफ़ाक़ से बच कर निकल गए तो क्या
रह ए तलब में तो नादिर हैं कितने दाम अभी..!!
~अतहर नादिर

























