कहाँ कहाँ न गई मेहरबान की ख़ुशबू

कहाँ कहाँ न गई मेहरबान की ख़ुशबू
ज़माने भर में है उर्दू ज़बान की ख़ुशबू,

बदन से जिस घड़ी निकलेगी जान की ख़ुशबू
मिलेगी ख़ाक में तब आन बान की ख़ुशबू,

क़दम बहकते हैं जज़्बात के अँधेरों में
तो खींच लाती है मुझ को मकान की ख़ुशबू,

जो हक़ के वास्ते देना पड़े ज़माने में
अजीब होती है इस इम्तिहान की ख़ुशबू,

यहाँ पे प्यार है यकजेहती भाई चारा है
बड़ी ही ख़ूब है हिन्दोस्तान की ख़ुशबू,

जवान होंगे जो साज़िश की गोद में फ़ित्ने
कहाँ से आएगी अम्न ओ अमान की ख़ुशबू,

वफ़ा ख़ुलूस दियानत हया सदाक़त प्यार
निसार हम भी लुटाते हैं शान की ख़ुशबू..!!

~अहमद निसार


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