जब ख़िलाफ़ ए मस्लहत जीने की नौबत आई थी
डूब मरते डूब मरने में अगर दानाई थी,
मैं तो हर मुमकिन उसे लाता रहा तेरे क़रीब
क्या करूँ ऐ दिल तेरी तक़दीर में तन्हाई थी,
ख़ौफ़ का इफ़रीत साँसें ले रहा था दश्त में
रात के चेहरे पे सन्नाटे की दहशत छाई थी,
एक ये नौबत कि वहशत ढूँढता फिरता हूँ मैं
एक वो मौसम कि गुलशन की हुआ सहराई थी,
आसमाँ से गिर रही थी शोख़ रंगों की फुवार
मेरी आँखों में तेरे दीदार की रा’नाई थी,
शब गज़ीदों से हिसाब ए ग़म चुकाने के लिए
तुम न आए थे मगर सुब्ह ए क़यामत आई थी,
मैं किधर जाता कि हर जानिब ज़बान ए ख़ल्क़ थी
मैं कहाँ छुपता कि मेरे खोज में रुस्वाई थी,
दहर में मशहूर थी शाहिद मेरी बे चारगी
और अन-देखे जहानों पर मेरी दाराई थी..!!
~अज्ञात

























