दिन भर के दहकते हुए सूरज से लड़ा हूँ
अब रात के दरिया में पड़ा डूब रहा हूँ,
अब तक मैं वहीं पर हूँ जहाँ से मैं चला हूँ
आवाज़ की रफ़्तार से क्यूँ भाग रहा हूँ ?
रखते हो अगर आँख तो बाहर से न देखो
देखो मुझे अंदर से बहुत टूट चुका हूँ,
ये सब तेरी महकी हुई ज़ुल्फ़ों का करम है
एक साँस में एक उम्र के दुख भूल गया हूँ,
तू जिस्म के अंदर है कि बाहर है किधर है
अल्वी मेरी जाँ कब से तुझे ढूँड रहा हूँ..!!
~मोहम्मद अल्वी