दिल से मंज़ूर तेरी हम ने क़यादत नहीं की
ये अलग बात अभी खुल के बग़ावत नहीं की,
हम सज़ावार जो ठहरे तो सबब है इतना
हुक्म ए हाकिम पे कभी हम ने इताअत नहीं की,
हम ने मालिक तुझे माना है तो सच्चा माना
इस लिए तेरी कभी झूटी इबादत नहीं की,
दोस्ती में भी फ़क़त एक चलन रखा है
दिल ने इंकार किया है तो रिफ़ाक़त नहीं की,
तू ने ख़ुद छोड़ा मोहब्बत का सफ़र याद तो कर
मैं ने तो तुझ से अलग हो के मसाफ़त नहीं की,
झूम उठेगा अगर उस को सुनाऊँ जा कर
ये ग़ज़ल मैं ने अभी नज़्र ए समाअत नहीं की,
उस को भी अपने रवय्ये पे कोई उज़्र न था
हम भी थे अपनी अना में सो रिआयत नहीं की,
ये तो फिर तुझ से मोहब्बत का था क़िस्सा मेरी जाँ
मेरे किस फ़ेल पे दुनिया ने मलामत नहीं की,
तू ने चर्चे किए हर जा मेरी रुस्वाई के
मैंने ख़ुद से भी कभी तेरी शिकायत नहीं की,
दोस्तों को भी रही वक़्त की क़िल्लत अख़्तर
हाल ए दिल हम ने सुनाने की भी आदत नहीं की..!!
~मजीद अख़्तर
Discover more from Hindi Gazals :: हिंदी ग़ज़लें
Subscribe to get the latest posts sent to your email.