नई नई आँखें हों तो हर मंज़र अच्छा लगता है
नई नई आँखें हों तो हर मंज़र अच्छा लगता है कुछ दिन शहर में घूमे लेकिन अब घर
Poetries
नई नई आँखें हों तो हर मंज़र अच्छा लगता है कुछ दिन शहर में घूमे लेकिन अब घर
आज ज़रा फ़ुर्सत पाई थी आज उसे फिर याद किया बंद गली के आख़िरी घर को खोल के
मुँह की बात सुने हर कोई दिल के दर्द को जाने कौन आवाज़ों के बाज़ारों में ख़ामोशी पहचाने
हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी, सुब्ह से शाम तक बोझ ढोता
जो हो एक बार वो हर बार हो ऐसा नहीं होता हमेशा एक ही से प्यार हो ऐसा
तुम अपने अक़ीदों के नेज़े हर दिल में उतारे जाते हो, हम लोग मोहब्बत वाले हैं तुम ख़ंजर
तू ख़ुश है गर मुझ से जुदा होने पर कोई गिला नहीं फिर तेरे बे वफ़ा होने पर,
बेचैन बहुत फिरना घबराए हुए रहना एक आग सी जज़्बों की दहकाए हुए रहना, छलकाए हुए चलना ख़ुशबू
पर्बत तेरे पहलू में अगर खाई नहीं है काहे की बुलंदी जहाँ गहराई नहीं है, अब कोई वहाँ
सीधे साधे लोग थे पहले घर भी सादा होता था कमरे कम होते थे और दालान कुशादा होता