खिड़कियाँ खोल रहा था कि हवा आएगी…
खिड़कियाँ खोल रहा था कि हवा आएगी क्या ख़बर थी कि चिरागों को निगल जाएगी, मुझेको इस वास्ते
Life Poetry
खिड़कियाँ खोल रहा था कि हवा आएगी क्या ख़बर थी कि चिरागों को निगल जाएगी, मुझेको इस वास्ते
कश्ती चला रहा है मगर किस अदा के साथ हम भी न डूब जाएँ कहीं ना ख़ुदा के
ये है मयकदा यहाँ रिंद हैं यहाँ सब का साक़ी इमाम है ये हरम नहीं है ऐ शैख़
न इब्तिदा की ख़बर है न इंतिहा मालूम रहा ये वहम कि हम हैं सो वो भी क्या
किसी से भी नहीं हम सब्र की तलक़ीन लेते है हमें मिलती नहीं जो चीज उसको छीन लेते
आँखे बन जाती है सावन की घटा शाम के बाद लौट जाता है अगर कोई खफ़ा शाम के
कोई हसीन मंज़र आँखों से जब ओझल हो जाएगा मुझको पागल कहने वाला ख़ुद ही पागल हो जाएगा,
मैं रातें जाग कर अक्सर वो यादें झाँक कर अक्सर निशाँ जो छोड़ देती है मेरी ही ज़ात
मेरे दोस्त, ऐ मेरे प्यारे अभी बात है अधूरी अभी चाँदनी है बाक़ी अभी रात है अधूरी, वही
चाँद यूँ कुछ देर को आते हो चले जाते हो मेरी नज़रों से छुप कर बादलो में शरमाते