ग़म के मुजरिम ख़ुशी के मुजरिम हैं…
ग़म के मुजरिम ख़ुशी के मुजरिम हैं लोग अब ज़िंदगी के मुजरिम हैं, और कोई गुनाह याद नहीं
Life Poetry
ग़म के मुजरिम ख़ुशी के मुजरिम हैं लोग अब ज़िंदगी के मुजरिम हैं, और कोई गुनाह याद नहीं
सोहनी धरती के रखवाले ये प्यारे खाक़ी वर्दी वाले, हर बाप का फ़ख्र ओ गुरुर है ये हर
हारे हुए नसीब का मयार देख कर वो चल पड़ा है इश्क़ का अख़बार देख कर, आयेंगी काम
बना के भेजा था उस रब ने अपना तर्जुमान तुम्हे छोड़ के सब कुछ फक़त तुम इन्सान बनो,
उसमें कोई रईस मुज़रिम था जो कहानी नहीं सुनाई गई, एक मय्यत ज़मीं तले उतरी एक मय्यत नहीं
तुम्हारी सोच, तुम्हारे गुमाँ से बाहर हम खड़े हुए है सफ ए दोस्तां से बाहर हम, हमें ही
पूछो अगर तो करते है इन्कार सब के सब सच ये कि है हयात से बेज़ार सब के
वफ़ादारी पे दे दी जान मगर ग़द्दारी नहीं आई हमारे खून में अब तक ये बीमारी नहीं आई,
आशना होते हुए भी आशना कोई नहीं जानते सब है मुझे, पहचानता कोई नहीं, तन्हा मेरे ज़िम्मे क्यूँ
कितने ही पेड़ ख़ौफ़ ए ख़िज़ाँ से उजड़ गए कुछ बर्ग ए सब्ज़ वक़्त से पहले ही झड़