अजल होती रहेगी इश्क़ कर के मुल्तवी कब तक
मुक़द्दर में है या रब आरज़ू ए ख़ुदकुशी कब तक
तड़पने पर हमारे आप रोकेंगे हँसी कब तक
ये माथे की शिकन कब तक ये अबरू की कजी कब तक
किरन फूटी उफ़ुक़ पर आफ़्ताब ए सुब्ह ए महशर की
सुनाए जाओ अपनी दास्तान ए ज़िंदगी कब तक
दयार ए इश्क़ में एक क़ल्ब ए सोज़ाँ छोड़ आए थे
जलाई थी जो हम ने शम्अ रस्ते में जली कब तक
जो तुम पर्दा उठा देते तो आँखें बंद हो जातीं
तजल्ली सामने आती तो दुनिया देखती कब तक
तह ए गिर्दाब की भी फ़िक्र कर ऐ डूबने वाले
नज़र आती रहेगी साहिलों की रौशनी कब तक
कभी तो ज़िंदगी ख़ुद भी इलाज ए ज़िंदगी करती
अजल करती रहे दरमान ए दर्द ए ज़िंदगी कब तक
वो दिन नज़दीक हैं जब आदमी शैताँ से खेलेगा
खिलौना बन के शैताँ का रहेगा आदमी कब तक
कभी तो ये फ़साद ए ज़ेहन की दीवार टूटेगी
अरे आख़िर ये फ़र्क़ ए ख़्वाजगी ओ बंदगी कब तक
दयार ए इश्क़ में पहचानने वाले नहीं मिलते
इलाही मैं रहूँ अपने वतन में अजनबी कब तक
मुख़ातब कर के अपने दिल को कहना हो तो कुछ कहिए
सबा उस बेवफ़ा के आसरे पर शायरी कब तक..??
~सबा अकबराबादी
























