अगर ये ज़िद है कि मुझ से दुआ सलाम न हो
तो ऐसी राह से गुज़रो जो राह ए आम न हो,
सुना तो है कि मोहब्बत पे लोग मरते हैं
ख़ुदा करे कि मोहब्बत तुम्हारा नाम न हो,
बहार ए आरिज़ ए गुल्गूँ तुझे ख़ुदा की क़सम
वो सुब्ह मेरे लिए भी कि जिस की शाम न हो,
मेरे सुकूत को नफ़रत से देखने वाले
यही सुकूत कहीं बाइस ए कलाम न हो,
इलाही ख़ैर कि उन का सलाम आया है
यही सलाम कहीं आख़िरी सलाम न हो,
मुझे तो रास न आई हयात ए नौ लेकिन
ख़ता मुआफ़ तुम्हारा भी ये मक़ाम न हो,
जमील उन से तआरुफ़ तो हो गया लेकिन
अब उन के बाद किसी से दुआ सलाम न हो..!!
~जमील मुरस्सापुरी