न जिस्म साथ हमारे न जाँ हमारी तरफ़
है कुछ भी हम में हमारा कहाँ हमारी तरफ़,
खड़े हैं प्यासे अना के इसी भरोसे पर
कि चल के आएगा एक दिन कुआँ हमारी तरफ़,
बिछड़ते वक़्त वो तक़्सीम कर गया मौसम
बहार उसकी तरफ़ है ख़िज़ाँ हमारी तरफ़,
इसी उमीद पे किरदार हम निभाते रहे
कि रुख़ करेगी कभी दास्ताँ हमारी तरफ़,
कहाँ कहाँ न छुपे बस्तियाँ जला के मगर
जहाँ जहाँ गए आया धुआँ हमारी तरफ़,
लगा के जान की बाज़ी जिसे बचाया था
खिंची हुई है उसी की कमाँ हमारी तरफ़,
उछाल देते हैं पत्थर ख़ला में हम जो कभी
पलट के देखता है आसमाँ हमारी तरफ़..!!
~राजेश रेड्डी

























