वक़्त का मारा हुआ इंसाँ रऊनत का शिकार
जिस की मेहनत का नतीजा अज़मत ए सरमायादार,
अस्ल में हिन्दोस्ताँ का बादशह लेकिन ग़ुलाम
ज़िंदगी की दूसरी मंज़िल में है गर्म ए ख़िराम,
फिर रहा है चिलचिलाती धूप में दीवानावार
बाल बच्चों का तसव्वुर कर रहा है बेक़रार,
ख़ून पानी एक कर के दाम जब मिलते नहीं
हाथ फैला कर भी क्या देगा कोई नान ए जवीं,
इब्तिदा है तीसरे फ़ाक़े की घर में कुछ नहीं
सोच कर कुछ घर की जानिब चल पड़ा मर्द ए हज़ीं,
देखता क्या है कि बच्चा भूक से है बेक़रार
जैसे कोई मार खा के भागने वाला शिकार,
गोद में बिठला के माँ समझा रही है प्यार से
आते ही होंगे तिरे अब्बा अभी बाज़ार से,
उस से ये इफ़्लास का मंज़र न देखा जा सका
बे तहाशा चीख़ मारी सर पटक कर मर गया,
एक सन्नाटा ज़मीं से आसमाँ तक छा गया
वक़्त के माथे पे हल्का सा पसीना आ गया,
हैफ़ ऐ अर्ज़ ए मुक़द्दस मादर ए हिन्दोस्ताँ
तेरे बच्चे और यूँ हो जाएँ बेनाम ओ निशाँ..!!
~शातिर हकीमी

























