किस को ख़ुशी के साथ ग़म ए दो जहाँ नहीं
वो कौन सी बहार है जिस की ख़िज़ाँ नहीं.
तूफ़ाँ की सख़्तियाँ तो कोई सख़्तियाँ नहीं
ग़म ये है बस में कश्ती ए उम्र ए रवाँ नहीं,
दुनिया के हर चराग़ की लौ थरथरा गई
इतना असर भी जिस में न हो दास्ताँ नहीं,
क़िस्मत की हर ख़ुशी तो ज़माने ने छीन ली
फिर भी ये मेरा ज़र्फ़ है लब पर फ़ुग़ाँ नहीं,
ऐसी जगह पे छोड़ गया मीर ए कारवाँ
मंज़िल का दूर तक कहीं नाम ओ निशाँ नहीं,
कुछ इस तरह से महव ए ख़याल ए जमाल हूँ
ये होश ही नहीं है कहाँ हूँ कहाँ नहीं,
तुझ को बग़ैर देखे उठेगी न ये जबीं
ये दिल का आइना है तेरा आस्ताँ नहीं,
बस दो ही दिन की शौक़ बहारें चमन में हैं
जिस ज़िंदगी को ढूँड रहा हूँ यहाँ नहीं..!!
~विशनू कुमार शौक

























