ये कैसा काम ऐ दस्त ए मसीह कर डाला
जो दिल का ज़ख़्म था वो ही सहीह कर डाला,
शब ए सियाह का चेहरा उदास देखा तो
निकल के चाँद ने उस को मलीह कर डाला,
ज़रा सा झाँक के तारीकियों से सूरज ने
मलीह चेहरा ए शब को सबीह कर डाला,
मैं कैसे अक़्ल का पैकर समझ लूँ इंसाँ को ?
ख़ुद अपनी ज़ीस्त को जिस ने क़बीह कर डाला,
कल उस ने छेड़ के महफ़िल में तज़्किरा मेरा
हर एक ऐब ओ हुनर को सरीह कर डाला,
तुम्हारी दास्ताँ उलझी हुई थी वहमों में
दुआएँ दो हमें हम ने फ़सीह कर डाला..!!
~ज़मीर अतरौलवी

























