क्यूँ आँखें बंद कर के रस्ते में चल रहा हूँ

क्यूँ आँखें बंद कर के रस्ते में चल रहा हूँ
क्या मैं भी रफ़्ता रफ़्ता पत्थर में ढल रहा हूँ ?

चारों तरफ़ हैं शोले हमसाए जल रहे हैं
मैं घर में बैठा बैठा बस हाथ मल रहा हूँ,

मेरे धुएँ से मेरी हर साँस घुट रही है
मैं राह का दिया हूँ और घर में जल रहा हूँ,

आँखों पे छा गया है कोई तिलिस्म शायद
पलकें झपक रहा हूँ मंज़र बदल रहा हूँ,

तब्दीलियों का नशा मुझ पर चढ़ा हुआ है
कपड़े बदल रहा हूँ चेहरा बदल रहा हूँ,

इस फ़ैसले से ख़ुश हैं अफ़राद घर के सारे
अपनी ख़ुशी से कब मैं घर से निकल रहा हूँ,

इन पत्थरों पे चलना आ जाएगा मुझे भी
ठोकर तो खा रहा हूँ लेकिन सँभल रहा हूँ,

काँटों पे जब चलूँगा रफ़्तार तेज़ होगी
फूलों भरी रविश पर बच बच के चल रहा हूँ,

चश्मे की तरह आलम अशआर फूटते हैं
कोह ए गिराँ की सूरत में भी उबल रहा हूँ..!!

~आलम ख़ुर्शीद

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