ग़म ए दौराँ ने भी सीखे ग़म ए जानाँ के चलन
वही सोची हुई चालें वही बे साख़्तापन,
वही इक़रार में इंकार के लाखों पहलू
वही होंठों पे तबस्सुम वही अबरू पे शिकन,
किस को देखा है कि पिंदार ए नज़र के बा वस्फ़
एक लम्हे के लिए रुक गई दिल की धड़कन,
कौन सी फ़स्ल में इस बार मिले हैं तुझ से
कि न परवा ए गरेबाँ है न फ़िक्र ए दामन,
अब तो चुभती है हवा बर्फ़ के मैदानों की
उन दिनों जिस्म के एहसास से जलता था बदन,
ऐसी सूनी तो कभी शाम ए ग़रीबाँ भी न थी
दिल बुझे जाते हैं ऐ तीरगी ए सुब्ह ए वतन..!!
~मुस्तफ़ा ज़ैदी
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