फ़नकार ख़ुद न थी मेरे फ़न की शरीक थी
वो रूह के सफ़र में बदन की शरीक थी,
उतरा था जिस पे बाब ए हया का वरक़ वरक़
बिस्तर के एक एक शिकन की शरीक थी,
मैं एक एतिबार से आतिश परस्त था
वो सारे ज़ावियों से चमन की शरीक थी,
वो नाज़िश ए सितारा ओ तन्नार ए माहताब
गर्दिश के वक़्त मेरे गहन की शरीक थी,
वो हम जलीस ए सानिहा ए रहमत ए नशात
आसाइश ए सलीब ओ रसन की शरीक थी,
ना क़ाबिल ए बयान अँधेरों के बावजूद
मेरी दुआ ए सुब्ह वतन की शरीक थी..!!
~मुस्तफ़ा ज़ैदी
Discover more from Hindi Gazals :: हिंदी ग़ज़लें
Subscribe to get the latest posts sent to your email.