जहाँ ग़म है न अब कोई ख़ुशी है
मोहब्बत उस जगह पर आ गई है,
जिसे देखो उसे अपनी पड़ी है
ज़माने की बहुत हालत गिरी है,
मुसलसल फ़िक्र ए दुनिया फ़िक्र ए उक़्बा
अब ऐसी ज़िंदगी क्या ज़िंदगी है ?
मैं अपने दिल की बातें कह रहा हूँ
ज़माने के लिए ये शायरी है,
सकूँ मिलता है उनको याद कर के
इलाज ए तिश्नगी ख़ुद तिश्नगी है,
दिलों में है अंधेरा अहद ए नौ का
ब ज़ाहिर रौशनी ही रौशनी है,
बड़ी मुश्किल है मीर ए कारवाँ की
बहुत फैली हुई बे रह रवी है,
नई तहज़ीब में सब कुछ है लेकिन
फ़क़त इंसानियत ही की कमी है,
ये लगता है तरक़्क़ी कर रहे हैं
गिरावट रोज़ बढ़ती जा रही है,
कहीं पत्थर न फीके ये ज़माना
तेरी फ़िक्र ओ अमल शीशागरी है,
उठा है एक कोने में धुआँ सा
कहीं शायद कोई बिजली गिरी है,
करूँ ऐ मौज क्या उम्मीद ए साहिल
कि अब तूफ़ाँ में कश्ती घिरी है..!!
~मोज फ़तेहगढ़ी

























