वो मेरे ख़्वाब की ताबीर तो बताए मुझे
मैं धूप में हूँ मगर ढूँढते हैं साए मुझे,
मैं रौशनी की किसी सल्तनत का शहज़ादा
मगर चराग़ मिले हैं बुझे बुझाए मुझे,
वो जा चुका है तो नक़्श ए क़दम भी मिट जाएँ
बिछड़ गया है तो अब याद भी न आए मुझे,
किसी जवाज़ का होना ही क्या ज़रूरी है ?
अगर वो छोड़ना चाहे तो छोड़ जाए मुझे,
तो मोतियों में न तुलने का रंज ख़त्म हुआ
किसी की आँख के आँसू ख़रीद लाए मुझे,
लरज़ते काँपते हाथों को फिर न हो ज़हमत
ख़ुदा करे कि यही ज़हर रास आए मुझे,
मैं चाहता हूँ कभी यूँ भी हो कि मेरी तरह
वो मुझ को ढूँढने निकले मगर न पाए मुझे..!!
~तारिक़ क़मर
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