तख़्लीक़ पे फ़ितरत की गुज़रता है गुमाँ और

तख़्लीक़ पे फ़ितरत की गुज़रता है गुमाँ और
इस आदम ए ख़ाकी ने बनाया है जहाँ और,

ये सुब्ह है सूरज की सियाही से अँधेरी
आएगी अभी एक सहर महर चकाँ और,

बढ़नी है अभी और भी मज़लूम की ताक़त
घटनी है अभी ज़ुल्म की कुछ ताब ओ तवाँ और,

तर होगी ज़मीं और अभी ख़ून ए बशर से
रोएगा अभी दीदा ए ख़ूनाबा फ़िशाँ और,

बढ़ने दो ज़रा और अभी कुछ दस्त ए तलब को
बढ़ जाएगी दो चार शिकन ए ज़ुल्फ़ ए बुताँ और,

करना है अभी ख़ून ए जिगर सर्फ़ ए बहाराँ
कुछ देर उठाना है अभी नाज़ ए ख़िज़ाँ और,

हम हैं वो बला कश कि मसाइब से जहाँ के
हो जाते हैं शाइस्ता ए ग़म हा ए जहाँ और..!!

~अली सरदार जाफ़री

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